Thursday, June 23, 2011

बदनामी सिर्फ स्त्री की ही क्यों...?


 

प्राचीनकाल से आज तक भले ही बहुत-सी बातों में स्त्री का दोष न हो, फिर भी उसे ही प्रताड़ित, कलंकित व बदनाम किया जाता है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का दर्द समझने की कोशिश न के बराबर होती है। वस्तुतः देखा जाए तो जिन बातों के लिए अक्सर स्त्री को अपमानित किया जाता है उनके लिए पुरुष भी जिम्मेदार होते हैं तो बदनामी की भागीदार सिर्फ स्त्री ही क्यों होती है?

स्वतंत्रता के 63 वर्षों के बाद भी शासन के तमाम प्रयासों, महिला संगठनों की स्थापना, 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने, महिला शिक्षा पर जोर देने के बावजूद ग्रामीण स्त्रियों की स्थिति में अभी तक मनोनुकूल परिवर्तन नहीं हो सके हैं। गाँवों और कस्बों में आज भी ऐसे कई प्रसंग देखने-सुनने को मिलते हैं जिनके लिए स्त्री को ही बदनाम किया जाता है, जैसे-

'डायन': आए दिन अखबारों में खबर छपती है कि अमुक गांव में स्त्री को निर्वस्त्र कर घुमाया गया या पीटकर मार डाला गया, क्योंकि लोगों को शक था कि वह डायन है और उसी के कारण बच्चों की मृत्यु हुई है। भले ही बच्चों की मृत्यु कुपोषण या बीमारी से हो लेकिन पुरुष प्रधान समाज में रूढ़ि या अंधविश्वास के कारण स्त्री को डायन मानकर बदनामी के साथ मौत के घाट तक उतार दिया जाता है। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि ममता की मूर्ति मां क्या कभी बच्चों को खा सकती है!

कन्या को जन्म देना : कई राज्यों के गांवों में आज भी बहू बेटी को जन्म देती है तो परिवारवाले उसके साथ ऐसा अमानवीय व्यवहार करते हैं, जैसे उसने बहुत बड़ा पाप कर दिया हो। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि लड़के के जन्म के लिए पुरुष के 'वाय क्रोमोसोम' की जरूरत होती है। इसके अभाव का दोष स्त्री को नहीं दिया जा सकता। तो फिर बेटी होने पर महिला को क्यों बदनाम किया जाता है?


बाँझपनः यदि कोई महिला मां नहीं बन पाती है तो उसे कलंकिनी, बांझ (यहां तक कि अन्य महिलाएं सुबह-सुबह उसका मुंह तक नहीं देखतीं) आदि कहकर अपमानित व प्रताड़ित करते हैं। वे भूल जाते हैं कि बच्चे के जन्म के लिए स्त्री-पुरुष दोनों का योगदान होता है। हो सकता है पुरुष में कमी हो, परंतु मां न बनने पर बदनाम स्त्री को ही किया जाता है। शारीरिक कमी यदि स्त्री में भी हो तो इसके लिए उसे दोषी ठहराने या अपमानित करने का क्या औचित्य है?

छेड़छाड़ः गांवों में यदि किसी महिला के साथ कोई छेड़छाड़ की जाती है तो पुलिस में रिपोर्ट करने के बजाए उसे चुप रहने के लिए कहा जाता है, क्योंकि माना जाता है कि ऐसा करने से लड़की या स्त्री की बदनामी होगी। इसी कारण अपराधी जुर्म करने के बावजूद बच जाता है। वहीं बेकसूर होते हुए भी पीड़िता पर घर व समाज वाले उंगलियां उठाते हैं। 

कई मर्तबा तो आत्मग्लानि में महिला आत्महत्या तक कर लेती है। इसी तरह स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा को कोई मनचला परेशान करता है तो उसे सबक सिखाने के बजाए 'लड़की की बदनामी होगी', इस डर से उसका स्कूल जाना रुकवा देते हैं। गलती पुरुष करे और भुगते महिला, ऐसा क्यों?


कौमार्य परीक्षा : विज्ञान एवं शिक्षा के युग में आज भी कई गांवों व समाज में कई प्रकार से नारी के कौमार्य की परीक्षा की जाती है। (एक समाज में तो शादी के बाद बहू के हाथों से बिना झारी के गर्म तेल से पूरियां निकलवाई जाती हैं)। शादी के बाद प्रथम मिलन पर यदि ब्लीडिंग न हो तो बहू को बदचलन करार देकर छोड़ दिया जाता है, भले ही उसने कुछ गलत न किया हो। ऐसा करने वाले नहीं जानते कि घुड़सवारी, उछलकूद, साइकल चलाने या अन्य कारण से भी कौमार्य झिल्ली (हायमन झिल्ली) फट सकती है। 

'तुम्हारे कारण': कहते हैं कि हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। हकीकत में सफल होने पर पुरुष कभी इसका श्रेय नारी को नहीं देता, परंतु असफल होने पर अपशब्द, अपमान और प्रताड़ना के साथ पुरुष बस यही कहता है, 'ये सब तुम्हारे कारण ही हुआ।' 

इस तरह शिक्षित, सभ्य समाज में किसी बात के लिए पुरुष जिम्मेदार हो, महिला का उससे कोई वास्ता न हो परंतु बदनाम, अपमान, तिरस्कार स्त्री का ही होता है। क्या पुरुष द्वारा अपने व्यवहार का आकलन किए बगैर स्त्री को इस तरह अपमानित और तिरस्कृत करना उचित है?

Saturday, February 26, 2011

जन गण मन की अदभुद कहानी ........... अंग्रेजो तुम्हारी जय हो ! ........

जन गण मन की अदभुद कहानी ........... अंग्रेजो तुम्हारी जय
हो ! .........


सन 1911 तक भारत की राजधानी बंगाल हुवा करता था | सन 1911 में जब बंगाल
विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के
लोग उठ खड़े हुवे तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए बंगाल से राजधानी
को दिल्ली ले गए और दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया | पूरे भारत में उस
समय लोग विद्रोह से भरे हुवे थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा
को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाये | इंग्लैंड का राजा जोर्ज
पंचम 1911 में भारत में आया |


रविंद्रनाथ टेगोर पर दबाव बनाया कि तुम्हे एक गीत जोर्ज पंचम के स्वागत
में लिखना ही होगा | मजबूरी में रविंद्रनाथ टेगोर ने बेमन से वो गीत लिखा
जिसके बोल है - जन गण मन अधिनायक जय हो भारत भाग्य विधाता .... | जिसका
अर्थ  समजने पर पता लगेगा कि ये तो हकीक़त में ही अंग्रेजो कि खुसामद में
लिखा गया था | इस राष्ट्र गान का अर्थ कुछ इस तरह से होता है -


भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता
समझती है और मानती है | हे अधिनायक (तानाशाह) तुम्ही भारत के भाग्य
विधाता हो | तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो !  तुम्हारे भारत आने से सभी
प्रान्त पंजाब सिंध गुजरात महारास्त्र, बंगाल  आदि और जितनी भी नदिया
जैसे यमुना गंगा ये सभी हर्षित है खुश है प्रसन्न है .............
तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है
| तुम्हारी ही हम गाथा गाते है | हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो )
तुम्हारी जय हो जय हो जय हो |


रविन्द्र नाथ टेगोर के बहनोई, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और
IPS ऑफिसर थे | अपने बहनोई को उन्होंने एक लैटर लिखा | इसमें उन्होंने
लिखा है कि ये गीत जन गण मन अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर
लिखवाया गया है | इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है | इसको न गाया जाये
तो अच्छा है | लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को
नहीं बताया जाये | लेकिन कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे |


जोर्ज पंचम भारत आया 1911 में और उसके स्वागत में ये गीत गया गया | जब वो
इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया |
क्योंकि जब स्वागत हुवा तब उसके समज में नहीं आया कि ये गीत क्यों गया
गया | जब अंग्रेजी अनुवाद उसने सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी
खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की | वह बहुत खुस
हुवा | उसने आदेश दिया कि जिसने भी ये गीत उसके लिए लिखा है उसे इंग्लैंड
बुलाया जाये | रविन्द्र नाथ टैगोरे इंग्लैंड गए | जोर्ज पंचम उस समय नोबल
पुरुष्कार समिति का अध्यक्ष भी था |  उसने रविन्द्र नाथ टैगोरे को नोबल
पुरुष्कार से सम्मानित करने का फैसला किया | तो रविन्द्र नाथ टैगोरे ने
इस नोबल पुरुष्कार को लेने से मन कर दिया | क्यों कि गाँधी जी ने बहुत
बुरी तरह से रविन्द्रनाथ टेगोर को उनके इस गीत के लिए खूब सुनाया | टेगोर
ने कहा की आप मुझे नोबल पुरुष्कार देना ही चाहते हो तो मेने एक गीतांजलि
नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो | जोर्ज पंचम मान गया और रविन्द्र
नाथ टेगोर को सन 1913 में  नोबल पुरुष्कार दिया गया | उस समय रविन्द्र
नाथ टेगोर का परिवार अंग्रेजो के बहुत नजदीक थे |


जब 1919 में जलियावाला बाग़ का कांड हुवा, जिसमे निहत्ते लोगों पर
अंग्रेजो ने गोलिया बरसाई तो गाँधी जी ने एक लैटर रविन्द्र नाथ टेगोर को
लिखी जिसमे शब्द शब्द में गलियां थी | फिर गाँधी जी स्वयं रविन्द्र नाथ
टेगोर से मिलने गए और बहुत जोर से डाटा कि अभी तक अंग्रेजो की अंध भक्ति
में डूबे हुवे हो ? रविंद्रनाथ टेगोर की नीद खुली | इस काण्ड के बाद
टेगोर ने विरोध किया और नोबल पुरुष्कार अंग्रेजी हुकूमत को लौटा दिया |
सन 1919 से पहले जितना कुछ भी रविन्द्र नाथ तेगोरे ने लिखा वो अंग्रेजी
सरकार के पक्ष में था और 1919 के बाद उनके लेख कुछ कुछ अंग्रेजो   के
खिलाफ होने लगे थे |  7 अगस्त 1941 को उनकी म्रत्यु हो गई |  और उनकी
म्रत्यु के बाद उनके बहनोई ने वो लैटर सार्वजनिक कर दिया |


1941 तक कांग्रेस पार्टी थोड़ी उभर चुकी थी | लेकिन वह दो खेमो में बट गई
| जिसमे एक खेमे के समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे और दुसरे खेमे में मोती
लाल नेहरु थे | मतभेद था सरकार बनाने का | मोती लाल नेहरु चाहते थे कि
स्वतंत्र भारत कि सरकार अंग्रेजो के साथ कोई संयोजक सरकार बने |  जबकि
गंगाधर तिलक कहते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर सरकार बनाना तो भारत के
लोगों को धोखा देना है | इस मतभेद के कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से
निकल गए  और गरम दल इन्होने बनाया |  कोंग्रेस के दो हिस्से हो गए| एक
नरम दल और एक गरम दल | गरम दल के नेता थे लोकमान्य तिलक , लाला लाजपत राय
| ये हर जगह वन्दे मातरम गया करते थे | और गरम दल के नेता थे मोती लाल
नेहरु | लेकिन नरम दल वाले ज्यादातर अंग्रेजो के साथ रहते थे | उनके साथ
रहना, उनको सुनना , उनकी मीटिंगों में शामिल होना |  हर समय अंग्रेजो से
समझोते में रहते थे | वन्देमातरम से अंग्रेजो को बहुत चिढ होती थी |  नरम
दल वाले गरम दल को चिढाने के लिए 1911 में लिखा गया गीत जन गण मन गाया
करते थे |


नरम दल ने उस समय एक वायरस छोड़ दिया कि मुसलमानों को वन्दे मातरम नहीं
गया चाहिए क्यों कि इसमें बुतपरस्ती  (मूर्ती पूजा) है | और आप जानते है
कि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी है | उस समय मुस्लिम लीग भी बन
गई थी जिसके प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना थे | उन्होंने भी इसका विरोध करना
शुरू कर दिया और मुसलमानों को वन्दे मातरम गाने से मना  कर दिया |  इसी
झगडे के चलते सन 1947 को भारत आजाद हुआ |


जब भारत सन 1947 में आजाद हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीति कर
डाली |  संविधान सभा कि बहस चली | जितने भी 319 में से 318 सांसद थे
उन्होंने बंकिम दास चटर्जी द्वारा लिखित वन्देमातरम को राष्ट्र गान
स्वीकार करने पर सहमती जताई| बस एक सांसद ने इस प्रस्ताव को नहीं माना |
और उस एक सांसद का नाम था पंडित जवाहर लाल नेहरु | वो कहने लगे कि क्यों
कि वन्दे मातरम से मुसलमानों के दिल को चोट पहुचती है इसलिए इसे नहीं
गाना चाहिए | (यानी हिन्दुओ को चोट पहुचे तो ठीक है मगर मुसलमानों को चोट
नहीं पहचानी चाहिए) |


अब इस झगडे का फैसला कोन करे | तो वे पहुचे गाँधी जी के पास | गाँधी जी
ने कहा कि जन गन मन के पक्ष में तो में भी नहीं हु और तुम (नेहरु )
वन्देमातरम के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत निकालो |  तो महात्मा
गाँधी ने तीसरा विकल्प झंडा गान के रूप में दिया - विजयी विश्व तिरंगा
प्यारा झंडा ऊँचा रहे हमारा | लेकिन नेहरु जी उस पर भी तैयार नहीं हुवे |
नेहरु जी बोले कि झंडा गान ओर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता | और जन गन मन
ओर्केस्ट्रा पर बज सकता है |


और उस दौर में नेहरु मतलब वीटो हुवा करता था | यानी नेहरु भारत है, भारत
नेहरु है बहुत प्रचलित हो गया था | नेहरु जी ने जो कह दिया वो पत्थर कि
लकीर हो जाता था | नेहरु जी के शब्द कानून बन जाते थे |  नेहरु ने गन गण
मन को राष्ट्र गान घोषित कर दिया और जबरदस्ती भरतीयों पर इसे थोप दिया
गया जबकि इसके जो बोल है उनका अर्थ कुछ और ही कहानी प्रस्तुत करते है -


भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता
समझती है और मानती है | हे अधिनायक (तानाशाह) तुम्ही भारत के भाग्य
विधाता हो | तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो !  तुम्हारे भारत आने से सभी
प्रान्त पंजाब सिंध गुजरात महारास्त्र, बंगाल  आदि और जितनी भी नदिया
जैसे यमुना गंगा ये सभी हर्षित है खुश है प्रसन्न है .............
तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते है और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते है
| तुम्हारी ही हम गाथा गाते है | हे भारत के भाग्य विधाता (सुपर हीरो )
तुम्हारी जय हो जय हो जय हो |


हाल ही में भारत सरकार का एक सर्वे हुवा जो अर्जुन सिंह की मिनिस्टरी में
था | इसमें लोगों से पुछा गाया था कि आपको जन गण मन और वन्देमातरम में से
कोनसा गीत ज्यादा अच्छा लगता है तो 98 .8 % लोगो ने कहा है वन्देमातरम |
उसके बाद बीबीसी ने एक सर्वे किया |  उसने पूरे संसार में जितने भी भारत
के  लोग रहते थे उनसे पुछा गया कि आपको दोनों में से कौनसा ज्यादा पसंद
है तो 99 % लोगों ने कहा वन्देमातरम |  बीबीसी के इस सर्वे से एक बात और
साफ़ हुई कि दुनिया में दुसरे नंबर पर वन्देमातरम लोकप्रिय है | कई देश है
जिनको ये समझ  में नहीं आता है लेकिन वो कहते है कि इसमें जो लय है उससे
एक जज्बा पैदा होता है |


............... तो ये इतिहास है वन्दे मातरम का और जन गण मन का | अब आप
तय करे क्या गाना है ?
---
व्यवस्था परिवर्तन

पिछले 63 सालों से हम सरकारे बदल-बदल  कर देख चुके
है..................... हर समस्या के मूल में मौजूदा त्रुटिपूर्ण
संविधान है, जिसके सारे के सारे कानून / धाराएँ अंग्रेजो ने बनाये थे
भारत की गुलामी को स्थाई बनाने के लिए ...........इसी त्रुटिपूर्ण
संविधान के लचीले कानूनों की आड़ में पिछले 63 सालों से भारत लुट रहा
है ............... इस बार सरकार नहीं बदलेगी ......................
अबकी बार व्यवस्था परिवर्तन होगा...............

मौत का व्यापार .................... एलोपेथी .......

मौत का व्यापार .................... एलोपेथी .............

हमारे भारत में एक मंत्रालय हुवा करता है जो परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य
मंत्रालय कहलाता है| हमारी भारत सरकार प्रति वर्ष करीब  23700 करोड़
रुपये लोगों के स्वस्थ्य पर खर्च करती है  | फिर भी हमारे देश में ये
बीमारियाँ बढ़ रही है | आइये कुछ आंकड़ों पर नजर डालते है -


01 आबादी (जनसँख्या) -  भारत सरकार के आंकड़े बताते है कि सन 1951 में
भारत की आबादी करीब 33 करोड़ थी  जो सन 2010 तक 118 करोड़ हो गई |
02 सन 1951 में पूरे भारत में 4780 डॉक्टर थे, जो सन 2010 तक बढ़कर करीब
18,00,000 (18 लाख) हो गए |
03 सन 1947 में भारत में एलोपेथी दवा बनाने वाली कम्पनियाँ करीब 10-12
कंपनिया हुवा करती थी जो आज बढ़कर करीब 20 हजार हो गई है |
04 सन 1951 में पूरे भारत में करीब 70 प्रकार की दवाइयां बिका करती थी और
आज ये दवाइयां बढ़कर करीब 84000 (84 हजार) हो गई है |
05 सन 1951 में भारत में बीमार लोगों की संख्या करीब 5 करोड़ थी आज बीमार
लोगों की तादाद करीब 100 करोड़ हो गई है |


हमारी भारत सरकार ने पिछले 64  सालों में अस्पताल पर, दवाओ पर, डॉक्टर और
नर्सों पर,  ट्रेनिंग वगेराह वगेरह में सरकार ने जितना खर्च किया उसका 5
गुना यानी करीब 50 लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुकी है| आम जनता ने जो अपने
इलाज के लिए पैसे खर्च किये वो अलग है | आम जनता का लगभग 50 लाख करोड़
रूपया बर्बाद हुवा है पिछले 64 सालों में इलाज के नाम पर, बिमारियों के
नाम पर |


इतना सारा पैसा खर्च करने के बाद भी भारत में रोग और बीमारियाँ बढ़ी है |


01) हमारे देश में आज करीब 5 करोड़ 70 लाख लोग dibities (मधुमेह) के मरीज
है | (भारत सरकार के आंकड़े बताते है कि करीब 3 करोड़ लोगों को diabities
होने वाली है |
02) हमारे देश में आज करीब 4 करोड़ 80 लाख लोग ह्रदय रोग की विभिन्न
रोगों से ग्रसित है |
03) करीब 8 करोड़ लोग केंसर के मरीज है | भारत सरकार कहती है की 25 लाख
लोग हर साल केंसर के कारण मरते है |
04) 12 करोड़ लोगों को आँखों की विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ  है |
05) 14 करोड़ लोगों को छाती की बीमारियाँ है |
06) 14 करोड़ लोग गठिया रोग से पीड़ित है |
07) 20 करोड़ लोग उच्च रक्तचाप (High Blood Pressure ) और निम्न रक्तचाप
(Low Blood Pressure ) से पीड़ित है |
08) 27 करोड़ लोगों को हर समय 12 महीने सर्दी, खांसी, झुकाम, कोलेरा,
हेजा आदि सामान्य बीमारियाँ लगी ही रहती है |
09) 30 करोड़ भारतीय महिलाएं अनीमिया की शिकार है | एनीमिया यानी शरीर
में खून की कमी | महिलाओं में खून की कमी से पैदा होने वाले करीब 56 लाख
बच्चे जन्म लेने के पहले साल में ही मर जाते है | यानी पैदा होने के एक
साल के अन्दर-अन्दर उनकी मृत्यु हो जाती है |  क्यों कि खून की कमी के
कारण महिलाओं में दूध प्रयाप्त मात्र में नहीं बन पाता|  प्रति वर्ष 70
लाख बच्चे कुपोषण के शिकार होते है | कुपोषण के मायने उनमे खून की कमी,
फास्फोरस की कमी, प्रोटीन की कमी, वसा की कमी वगेरह वगेरह .......


ऊपर बताये गए सारे आंकड़ों से एक बात साफ़ तौर पर साबित होती है कि भारत
में एलोपेथी का इलाज कारगर नहीं हुवा है | एलोपेथी का इलाज सफल नहीं हो
पाया है| इतना पैसा खर्च करने के बाद भी बीमारियाँ कम नहीं हुई बल्कि और
बढ़ गई है |  यानी हम बीमारी को ठीक करने के लिए जो एलोपेथी दवा खाते है
उससे और नई तरह की बीमारियाँ सामने आने लगी है |


पहले मलेरिया हुवा करता था | मलेरिया को ठीक करने के लिए हमने जिन दवाओ
का इस्तेमाल किया उनसे डेंगू, चिकनगुनिया और न जाने क्या क्या नई नई तरह
की बुखारे बिमारियों के रूप में  पैदा हो गई है | किसी ज़माने में सरकार
दावा करती थी की हमने चिकंपोक्ष (छोटी माता और बड़ी माता) और टी बी जैसी
घातक बिमारियों पर विजय प्राप्त कर ली है लेकिन हाल ही में ये बीमारियाँ
फिर से अस्तित्व में आ गई है, फिर से लौट आई है|  यानी एलोपेथी दवाओं ने
बीमारियाँ कम नहीं की और ज्यादा बधाई है |


एक खास बात आपको बतानी है की ये अलोपेथी दवाइयां पहले पूरे संसार में
चलती थी जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, फ़्रांस, आदि | हमारे देश
में ये एलोपेथी इलाज अंग्रेज लाये थे | हम लोगों पर जबरदस्ती अंग्रेजो
द्वारा ये इलाज थोपा गया | द्वितीय विश्व युद्ध जब हुवा था तक रसायनों का
इस्तेमाल घोला बारूद बनाने में और रासायनिक हथियार बनाने में  हुवा करता
था |  जब द्वितीय विश्वयुध  में जापान पर परमाणु बम गिराया गया तो उसके
दुष्प्रभाव को देख कर विश्व के कई प्रमुख देशों में रासायनिक हथियार
बनाने वाली कम्पनियाँ को बंद करवा दी गई| बंद होने के कगार पर खड़ी इन
कंपनियों ने देखा की अब तो युद्ध खत्म हो गया है | अब इनके हथियार कौन
खरीदेगा | तो इनको किसी बाज़ार की तलाश थी | उस समय सन 1947 में भारत को
नई नई आजादी मिली थी और नई नई सरकार बनी थी| यहाँ उनको मौका मिल गया| और
आप जानते है की हमारे देश को आजाद हुवे एक साल ही गुजरा था की भारत का
सबसे पहला घोटाला सन 1948 में हुवा था सेना की लिए जीपे खरीदी जानी थी |
उस समय घोटाला हुवा था 80 लाख का | यांनी धीरे धीरे ये दावा कम्पनियां
भारत में व्यापार बढाने लगी और इनके व्यापार को बढ़ावा दिया हमारी
सरकारों ने|  ऐसा इसलिए हुवा क्यों की हमारे नेताओं  को इन दावा कंपनियों
ने खरीद लिया| हमारे नेता लालच में आ गए और अपना व्यापार धड़ल्ले से शुरू
करवा दिया |  इसी के चलते जहाँ हमारे देश में सन 1951 में 10 -12 दवा
कंपनिया हुवा करती थी वो आज बढ़कर 20000 से ज्यादा हो गई है | 1951 में
जहाँ लगभग 70 कुल दवाइयां हुवा करती थी आज की तारिख में ये 84000 से भी
ज्यादा है | फिर भी रोग कम नहीं हो रहे है, बिमारियों से पीछा नहीं छूट
रहा है |

आखिर सवाल खड़ा होता है कि इतनी सारे जतन करने के बाद भी बीमारियाँ कम
क्यों नहीं हो रही है | इसकी गहराई में जाए तो हमे पता लगेगा कि मानव के
द्वारा निर्मित ये दवाए किसी भी बीमारी को जड़ से समाप्त नहीं करती बल्कि
उसे कुछ समय के लिए रोके रखती है| जब तक दवा का असर रहता है तब तक ठीक,
दवा का असर खत्म हुवा बीमारियाँ फिर से हावी हो जाती है | दूसरी बात इन
दवाओं के साइड एफ्फेक्ट बहुत ज्यादा है | यानी एक बीमारी को ठीक करने के
लिए दवा खाओ तो एक दूसरी बीमारी पैदा हो जाती है |  आपको कुछ उदहारण दे
के समझाता हु -
01) Entipiratic  बुखार को ठीक करने के लिए हम एन्तिपैरेतिक दवाएं खाते
है जैसे - पेरासिटामोल, आदि | बुखार की ऐसी सेकड़ो दवाएं बाजार में बिकती
है | ये एन्तिपिरेटिक दवाएं हमारे गुर्दे ख़राब करती है | गुर्दा ख़राब
होने का सीधा मतलब है की पेसाब से सम्बंधित कई बीमारियाँ पैदा होना जैसे
पथरी, मधुमेह, और न जाने क्या क्या| एक गुर्दा खराब होता है उसके बदले
में नया गुर्दा लगाया जाता है तो ऑपरेशन का खर्चा करीब 3.50 लाख रुपये का
होता है |
02 ) Antidirial  इसी तरह से हम लोग दस्त की बीमारी में Antidirial दवाए
खाते है | ये एन्तिदिरल दवाएं हमारी आँतों में घाव करती है जिससे केंसर,
अल्सर, आदि भयंकर बीमारियाँ पैदा होती है |
03 ) Enaljesic इसी तरह हमें सरदर्द होता है तो हम एनाल्जेसिक दवाए खाते
है जैसे एस्प्रिन , डिस्प्रिन , कोल्द्रिन और भी सेकड़ों दवाए है |  ये
एनाल्जेसिक दवाए हमारे खून को पतला करती है | आप जानते है की खून पतला हो
जाये तो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और कोई भी बीमारी आसानी
से हमारे ऊपर हमला बोल सकती है |

आप आये दिन अखबारों में या टी वी पर सुना होगा की किसी का एक्सिडेंट हो
जाता है तो उसे अस्पताल ले जाते ले जाते रस्ते में ही उसकी मौत हो जाती
है | समज में नहीं आता कि अस्पताल ले जाते ले जाते मौत कैसे हो जाती है ?
होता क्या है कि जब एक्सिडेंट होता है तो जरा सी चोट से ही खून शरीर से
बहार आने लगता है और क्यों की खून पतला हो जाता है तो खून का थक्का नहीं
बनता जिससे खून का बहाव रुकता नहीं है और खून की कमी लगातार होती जाती है
और कुछ ही देर में उसकी मौत हो जाती है |

पिछले करीब 30 से 40 सालों में कई सारे देश है जहाँ पे ऊपर बताई गई लगभग
सारी दवाएं बंद हो चुकी है | जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी,
इटली, और भी कई देश में जहा ये दवाए न तो बनती और न ही बिकती है| लेकिन
हमारे देश में ऐसी दवाएं धड़ल्ले से बन रही है, बिक रही है|  इन 84000
दवाओं में अधिकतर तो ऐसी है जिनकी हमारे शरीर को जरुरत ही नहीं है | आपने
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHO का नाम सुना होगा| ये दुनिया कि सबसे
बड़ी स्वास्थ्य संस्था है | WHO कहता है कि भारत में केवल ३५० दवाओं कि
आवश्यकता है | केवल 350 , और हमारे देश में बिक रही है ८४००० दवाएं |
यानी जिन दवाओं कि जरूरत ही नहीं है वो डॉक्टर हमे खिलते है क्यों कि
जितनी ज्यादा दवाए बिकेगी डॉक्टर का कमिसन उतना ही बढेगा|


फिर भी डॉक्टर इस तरह की दवाए खिलते है | मजेदार बात ये है की डॉक्टर कभी
भी इन दवाओं का इस्तेमाल नहीं करता और न अपने बच्चो को खिलाता है| ये
सारी दवाएं तो आप जैसे और हम जैसे लोगों को खली जाती है | वो ऐसा इसलिए
करते है क्यों कि उनको इन दवाओं के साइड एफ्फेक्ट पता होता है | और कोई
भी डॉक्टर इन दवाओं के साइड एफ्फेक्ट के बारे में कभी किसी मरीज को नहीं
बताता| अगर भूल से पूछ बैठो तो डॉक्टर कहता है कि तुम ज्यादा जानते हो या
में?
दूसरी और चोकने वाली बात ये है कि  ये दवा कंपनिया बहुत बड़ा कमिसन देती
है डॉक्टर को| यानी डॉक्टर कमिशनखोर हो गए है या यूँ कहे की डॉक्टर दवा
कम्पनियों के एजेंट हो गए है तो गलत ना होगा |

आपने एक नाम सुना होगा M.R. यानि मेडिकल Represetative | ये नाम अभी हाल
ही में कुछ वर्षो में ही अस्तित्व में आया है| ये MR नाम का बड़ा विचित्र
प्राणी है |  ये कई तरह की दवा कम्पनियों की दवाएं डॉक्टर के पास ले जाते
है और इन दवाओं को बिकवाते है | ये दवा कंपनिया 40 40% तक कमिसन डॉक्टर
को सीधे तौर पर देती है | जो बड़े बड़े शहरों में दवा कंपनिया है नकद में
डॉक्टर को कमिसन देती है | ऑपरेशन करते है तो उसमे कमिसन खाते है | कई
बीमारियाँ ऐसी है जिसमे दवाएं जिंदगी भर खिलाई जाती है | जैसे हाई ब्लड
प्रेसर या लो ब्लड प्रेस्सर, daibities आदि | यानी जब तक दवा खाओगे आपकी
धड़कन चलेगी | दवाएं बंद तो धड़कन बंद | जितने भी डॉक्टर है उनमे से 99 %
डॉक्टर कमिसंखोर है | केवल 1 % इमानदार डॉक्टर है जो सही मायने में मरीजो
का सही इलाज करते है |

सारांस के रूप में हम कहे की मौत का खुला व्यापार धड़ल्ले से पूरे भारत
में चल रहा है तो कोई गलत नहीं होगा|


पूरी दुनिया में केवल २ देश है जहाँ आयुर्वेदिक दवाएं भरपूर मात्र में
मिलती है (1) भारत (2) चीन

Friday, February 11, 2011

अपने घर में ही गुलाम बनाया ..........


आओ बात करें भारत के विकास की
देश को चला रहे मुट्ठीभर ख़ास की
कमजोर पड़ रहे आम समाज की
मजबूत हो रहे पूँजीवाद की


गरीबों को सताते ये बेहिसाब
कई बार होते ये बेनकाब
नहीं लेती सरकार कोई हिसाब
क्या यही है लोकतंत्र का इन्साफ


यही हैं जो बनाते फ़ॉर्मूले
गरीबों को और गरीब बनाने की
अपनी जमीन बचाने की,मजदूर की
मेहनत से मुनाफा कमाने की


कहीं अनाज सड़ जाता है
कहीं कोई भूखों सो जाता है
कारें कंप्यूटर सस्ते हो रहे
मजदूर के बच्चे दूध को रो रहे


पैसे को जोड़कर ये और बनाते पैसे
गरीबों की जेब से घटाते बचे हुए सिक्के
कारखानों को बढाने की फिराक में
ये बैठे हमारे जमीन की ताक़ में


कई सेज इन्होने बनाया,
गाँव तोड़ शहर बसाया
अपने घर में ही गुलाम बनाया
जंगल जलाया, पहाड़ तुड़वाया
बीटी कॉटन का दौर चलाया
किसानो से आत्महत्या करवाया


ये इन्ही की मेहरबानी है
की स्विस बैंक की दिवाली है
हज़ारों अरब नहीं वापस आनी है
देशवासियों से खुलेआम बेईमानी है


खेल से भी कमाने वाले ये लोग
आईपीएल,सी.डब्लू.जी में लगाया भोग
खेल का भी लोगों ने खेल बनाया
पैसे और सियासत ने इसे चलता बनाया


कोर्पोरेट्स की कमाई यहाँ
कई गुना बढ़ जाती है
पल भर में अम्बानी की कमाई
पाँच सौ हो जाती है, कईयों को
दिन भर की मेहनत भी
इसकी आधी दिला नहीं पाती है


ये भारत की ही संसद है,जो
अम्बानी भाइयों के झगडे सुलझाने
में दिन रात एक कर देती है
और किसानों की आत्महत्या पर
चर्चा भी नहीं ठीक से करती है


लोकतंत्र के मायने खो गए कहीं
हमारी आवाजें दब सी गयी कहीं
सरकार लाचार दिख रही कहीं….


--

व्यवस्था परिवर्तन

Wednesday, February 9, 2011

सूचना का अधिकार , बड़े काम का हथियार, जानने का अधिकार, जीने का अधिकार :RTI का प्रयोग करे

क्या है सूचना का अधिकार
सूचना का अधिकार अधिनियम भारत की संसद द्वारा पारित एक कानून है, जो 12
अक्टूबर 2005 को लागू हुआ. यह कानून भारत के  सभी नागरिकों को सरकारी
फाइलों/रिकॉडर्‌‌स में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का
अधिकार देता है. जम्मू एवं कश्मीर को छोड़ कर भारत के सभी भागों में यह
अधिनियम लागू है. सरकार के संचालन और अधिकारियों/कर्मचारियों के वेतन के
मद में खर्च होने वाली रकम का प्रबंध भी हमारे-आपके द्वारा दिए गए करों
से ही किया जाता है. यहां तक कि एक रिक्शा चलाने वाला भी जब बाज़ार से कुछ
खरीदता है तो वह बिक्री कर, उत्पाद शुल्क इत्यादि के रूप में टैक्स देता
है. इसलिए हम सभी को यह जानने का अधिकार है कि उस धन को किस प्रकार खर्च
किया जा रहा है. यह हमारे मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है.

किससे और क्या सूचना मांग सकते हैं
सभी इकाइयों/विभागों, जो संविधान या अन्य कानूनों या किसी सरकारी
अधिसूचना के  अधीन बने हैं अथवा सरकार द्वारा नियंत्रित या वित्तपोषित
किए जाते हों, वहां से संबंधित सूचना मांगी जा सकती है.

सरकार से कोई भी सूचना मांग सकते हैं.
सरकारी निर्णय की प्रति ले सकते हैं.
सरकारी दस्तावेजों का निरीक्षण कर सकते हैं.
सरकारी कार्य का निरीक्षण कर सकते हैं.
सरकारी कार्य के पदार्थों के नमूने ले सकते हैं
किससे मिलेगी सूचना और कितना आवेदन शुल्क ?
इस कानून के तहत प्रत्येक सरकारी विभाग में जन/लोक सूचना अधिकारी (पीआईओ)
के पद का प्रावधान है. आरटीआई आवेदन इनके पास जमा करना होता है. आवेदन के
साथ केंद्र सरकार के विभागों के लिए 10 रुपये का आवेदन शुल्क देना पड़ता
है. हालांकि विभिन्न राज्यों में अलग-अलग शुल्क निर्धारित हैं. सूचना
पाने के लिए 2 रुपये प्रति सूचना पृष्ठ केंद्र सरकार के विभागों के लिए
देने पड़ते हैं. यह शुल्क विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग है. आवेदन शुल्क
नकद, डीडी, बैंकर चेक या पोस्टल आर्डर के माध्यम से जमा किया जा सकता है.
कुछ राज्यों में आप कोर्ट फीस टिकटें खरीद सकते हैं और अपनी अर्ज़ी पर
चिपका सकते हैं. ऐसा करने पर आपका शुल्क जमा माना जाएगा. आप तब अपनी
अर्ज़ी स्वयं या डाक से जमा करा सकते हैं.

आवेदन का प्रारूप क्या हो ?
केंद्र सरकार के विभागों के लिए कोई निर्धारित प्रारूप नहीं है. आप एक
सादे कागज़ पर एक सामान्य अर्ज़ी की तरह ही आवेदन बना सकते हैं और इसे
पीआईओ के पास स्वयं या डाक द्वारा जमा कर सकते हैं. (अपने आवेदन की एक
प्रति अपने पास निजी संदर्भ के लिए अवश्य रखें)

सूचना प्राप्ति की समय सीमा
पीआईओ को आवेदन देने के 30 दिनों के भीतर सूचना मिल जानी चाहिए. यदि
आवेदन सहायक पीआईओ को दिया गया है तो सूचना 35 दिनों के भीतर मिल जानी
चाहिए.

सूचना न मिलने पर क्या करे ?
यदि सूचना न मिले या प्राप्त सूचना से आप संतुष्ट न हों तो अपीलीय
अधिकारी के पास सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 19(1) के तहत एक
अपील दायर की जा सकती है. हर विभाग में प्रथम अपीलीय अधिकारी होता है.
सूचना प्राप्ति के 30 दिनों और आरटीआई अर्जी दाखिल करने के 60 दिनों के
भीतर आप प्रथम अपील दायर कर सकते हैं.

द्वितीय अपील क्या है?
द्वितीय अपील आरटीआई अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने का अंतिम विकल्प
है. द्वितीय अपील सूचना आयोग के पास दायर की जा सकती है. केंद्र सरकार के
विभागों के विरुद्ध केंद्रीय सूचना आयोग है और राज्य सरकार के विभागों के
विरुद्ध राज्य सूचना आयोग. प्रथम अपील के निष्पादन के 90 दिनों के भीतर
या उस तारीख के  90 दिनों के भीतर कि जब तक प्रथम अपील निष्पादित होनी
थी, द्वितीय अपील दायर की जा सकती है. अगर राज्य सूचना आयोग में जाने पर
भी सूचना नहीं मिले तो एक और स्मरणपत्र राज्य सूचना आयोग में भेज सकते
हैं. यदि फिर भी कोई कार्रवाई नहीं होती है तो आप इस मामले को लेकर
हाईकोर्ट जा सकते हैं.

सवाल पूछो, ज़िंदगी बदलो
 सूचना कौन देगा ?
प्रत्येक सरकारी विभाग में जन सूचना अधिकारी (पीआईओ - PIO ) का पद होता
है. आपको अपनी अर्जी उसके  पास दाख़िल करनी होगी. यह उसका उत्तरदायित्व है
कि वह उस विभाग के  विभिन्न भागों से आप द्वारा मांगी गई जानकारी इकट्ठा
करे और आपको प्रदान करे. इसके अलावा कई अधिकारियों को सहायक जन सूचना
अधिकारी के  पद पर नियुक्त किया जाता है. उनका कार्य जनता से आरटीआई
आवेदन लेना और पीआईओ के  पास भेजना है.

आरटीआई आवेदन कहां जमा करें ?
आप अपनी अर्जी-आवेदन पीआईओ या एपीआईओ के पास जमा कर सकते हैं. केंद्र
सरकार के विभागों के मामलों में 629 डाकघरों को एपीआईओ बनाया गया है.
मतलब यह कि आप इन डाकघरों में से किसी एक में जाकर आरटीआई काउंटर पर अपना
आरटीआई आवेदन और शुल्क जमा करा सकते हैं. वहां आपको एक रसीद भी मिलेगी.
यह उस डाकघर का उत्तरदायित्व है कि वह उसे संबंधित पीआईओ के  पास भेजे.


यदि पीआईओ या संबंधित विभाग आरटीआई आवेदन स्वीकार न करे
ऐसी स्थिति में आप अपना आवेदन डाक द्वारा भेज सकते हैं. इसकी औपचारिक
शिक़ायत संबंधित सूचना आयोग को भी अनुच्छेद 18 के तहत करें. सूचना आयुक्त
को उस अधिकारी पर 25,000 रुपये का अर्थदंड लगाने का अधिकार है, जिसने
आवेदन लेने से मना किया था.


पीआईओ या एपीआईओ का पता न चलने पर
यदि पीआईओ या एपीआईओ का पता लगाने में कठिनाई होती है तो आप आवेदन
विभागाध्यक्ष को भेज सकते हैं. विभागाध्यक्ष को वह अर्जी संबंधित पीआईओ
के पास भेजनी होगी.

अगर पीआईओ आवेदन न लें
पीआईओ आरटीआई आवेदन लेने से किसी भी परिस्थिति में मना नहीं कर सकता. भले
ही वह सूचना उसके विभाग/कार्यक्षेत्र में न आती हो. उसे अर्जी स्वीकार
करनी होगी. यदि आवेदन-अर्जी उस पीआईओ से संबंधित न हो तो वह उसे उपायुक्त
पीआईओ के  पास पांच दिनों के भीतर अनुच्छेद 6(3) के तहत भेज सकता है.
क्या सरकारी दस्तावेज़ गोपनीयता क़ानून 1923 सूचना के अधिकार में बाधा है
नहीं. सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अनुच्छेद 22 के अनुसार सूचना का
अधिकार क़ानून सभी मौजूदा क़ानूनों का स्थान ले लेगा.

अगर पीआईओ सूचना न दें
एक पीआईओ सूचना देने से मना उन 11 विषयों के लिए कर सकता है, जो सूचना का
अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद आठ में दिए गए हैं. इनमें विदेशी सरकारों से
प्राप्त गोपनीय सूचना, देश की सुरक्षा, रणनीतिक, वैज्ञानिक या आर्थिक
हितों की दृष्टि से हानिकारक सूचना, विधायिका के विशेषाधिकारों का
उल्लंघन करने वाली सूचनाएं आदि. सूचना का अधिकार अधिनियम की दूसरी
अनुसूची में उन 18 अभिकरणों की सूची दी गई है, जिन पर यह लागू नहीं होता.
हालांकि उन्हें भी वे सूचनाएं देनी होंगी, जो भ्रष्टाचार के आरोपों और
मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़ी हों.

कहां कितना आरटीआई शुल्क
 प्रथम अपील/द्वितीय अपील की कोई फीस नहीं है. हालांकि कुछ राज्य
सरकारों ने फीस का प्रावधान किया है. विभिन्न राज्यों में सूचना शुल्क/
अपील शुल्क का प्रारूप अलग-अलग है.कहीं आवेदन के लिए शुल्क 10 रुपये है
तो कहीं 50 रुपये. इसी तरह दस्तावेजों की फोटोकॉपी के लिए कहीं 2 रुपये
तो कहीं 5 रुपये लिए जाते हैं.

क्या फाइल नोटिंग मिलता है ?
फाइलों की टिप्पणियां (फाइल नोटिंग) सरकारी फाइल का अभिन्न हिस्सा हैं और
इस अधिनियम के तहत सार्वजनिक की जा सकती हैं. केंद्रीय सूचना आयोग ने 31
जनवरी 2006 के अपने एक आदेश में यह स्पष्ट कर दिया है.


सूचना क्यों चाहिए, क्या उसका कारण बताना होगा ?
बिल्कुल नहीं. कोई कारण या अन्य सूचना केवल संपर्क विवरण (नाम, पता, फोन
नंबर) के अतिरिक्त देने की ज़रूरत नहीं है. सूचना क़ानून स्पष्टतः कहता है
कि प्रार्थी से संपर्क विवरण के अतिरिक्त कुछ नहीं पूछा जाएगा.



कैसे करे सूचना के लिए आवदेन एक उदाहरण से समझे  ?
 यह क़ानून कैसे मेरे कार्य पूरे होने में मेरी सहायता करता है? कोई
अधिकारी क्यों अब तक आपके रुके काम को, जो वह पहले नहीं कर रहा था, करने
के लिए मजबूर होता है और कैसे यह क़ानून आपके काम को आसानी से पूरा करवाता
है इसे समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं.

एक आवेदक ने राशन कार्ड बनवाने के लिए आवेदन किया. उसे राशन कार्ड नहीं
दिया जा रहा था. लेकिन जब उसने आरटीआई के तहत आवेदन दिया. आवेदन डालते
ही, उसे एक सप्ताह के भीतर राशन कार्ड दे दिया गया. आवेदक ने निम्न सवाल
पूछे थे:
1. मैंने एक डुप्लीकेट राशन कार्ड के लिए 10 नवंबर 2009  को अर्जी दी थी.
कृपया मुझे मेरी अर्जी पर हुई दैनिक प्रगति रिपोर्ट बताएं अर्थात मेरी
अर्जी किस अधिकारी के पास कब पहुंची, उस अधिकारी के पास यह कितने समय रही
और उसने उतने समय तक मेरी अर्जी पर क्या कार्रवाई की?
2. नियमों के अनुसार, मेरा कार्ड कितने दिनों के भीतर बन जाना चाहिए था.
अब तीन माह से अधिक का समय हो गया है. कृपया उन अधिकारियों के  नाम व पद
बताएं जिनसे आशा की जाती है कि वे मेरी अर्जी पर कार्रवाई करते व
जिन्होंने ऐसा नहीं किया?
3. इन अधिकारियों के विरुद्ध अपना कार्य न करने व जनता के शोषण के  लिए
क्या कार्रवाई की जाएगी? वह कार्रवाई कब तक की जाएगी?
4. अब मुझे कब तक अपना कार्ड मिल जाएगा?
आमतौर पर पहले ऐसे आवेदन कूड़ेदान में फेंक दिए जाते थे. लेकिन सूचना
क़ानून के तहत दिए गए आवेदन के संबंध में यह क़ानून कहता है कि सरकार को 30
दिनों में जवाब देना होगा. यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, उनके वेतन में
कटौती की जा सकती है. ज़ाहिर है, ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना अधिकारियों
के लिए आसान नहीं होगा.
पहला प्रश्न है : कृपया मुझे मेरी अर्जी पर हुई दैनिक उन्नति बताएं.
कोई उन्नति हुई ही नहीं है. लेकिन सरकारी अधिकारी यह इन शब्दों में लिख
ही नहीं सकते कि उन्होंने कई महीनों से कोई कार्रवाई नहीं की है. वरन यह
काग़ज़ पर ग़लती स्वीकारने जैसा होगा.

अगला प्रश्न है : कृपया उन अधिकारियों के नाम व पद बताएं जिनसे आशा की
जाती है कि वे मेरी अर्जी पर कार्रवाई करते व जिन्होंने ऐसा नहीं किया.
यदि सरकार उन अधिकारियों के  नाम व पद बताती है, तो उनका उत्तरदायित्व
निर्धारित हो जाता है. एक अधिकारी अपने विरुद्ध इस प्रकार कोई
उत्तरदायित्व निर्धारित होने के  प्रति का़फी सतर्क होता है. इस प्रकार,
जब कोई इस तरह अपनी अर्जी देता है, उसका रुका कार्य संपन्न हो जाता है.

घूस को मारिए घूंसा
 कैसे यह क़ानून आम आदमी की रोज़मर्रा की समस्याओं (सरकारी दफ़्तरों से
संबंधित) का समाधान निकाल सकता है. वो भी, बिना रिश्वत दिए. बिना जी-
हुजूरी किए. आपको बस अपनी समस्याओं के बारे में संबंधित विभाग से सवाल
पूछना है. जैसे ही आपका सवाल  संबंधित विभाग तक पहुंचेगा वैसे ही संबंधित
अधिकारी पर क़ानूनी तौर पर यह ज़िम्मेवारी आ जाएगी कि वो आपके सवालों का
जवाब दे. ज़ाहिर है, अगर उस अधिकारी ने बेवजह आपके काम को लटकाया है तो वह
आपके सवालों का जवाब भला कैसे देगा.

आप अपना आरटीआई आवेदन (जिसमें आपकी समस्या से जुड़े सवाल होंगे) संबंधित
सरकारी विभाग के लोक सूचना अधिकारी (पीआईओ) के पास स्वयं जा कर या डाक के
द्वारा जमा करा सकते हैं. आरटीआई क़ानून के मुताबिक़ प्रत्येक सरकारी विभाग
में एक लोक सूचना अधिकारी को नियुक्त करना आवश्यक है. यह ज़रूरी नहीं है
कि आपको उस पीआईओ का नाम मालूम हो. यदि आप प्रखंड स्तर के किसी समस्या के
बारे में सवाल पूछना चाहते है तो आप क्षेत्र के बीडीओ से संपर्क कर सकते
हैं. केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों के पते जानने के लिए आप इंटरनेट की भी
मदद ले सकते है. और, हां एक बच्चा भी आरटीआई क़ानून के तहत आरटीआई आवेदन
दाख़िल कर सकता है.

 सूचना ना देने पर अधिकारी को सजा

स्वतंत्र भारत के  इतिहास में पहली बार कोई क़ानून किसी अधिकारी की
अकर्मण्यता/लापरवाही के प्रति जवाबदेही तय करता है और इस क़ानून में
आर्थिक दंड का भी प्रावधान है.  यदि संबंधित अधिकारी समय पर सूचना उपलब्ध
नहीं कराता है तो उस पर 250 रु. प्रतिदिन के हिसाब से सूचना आयुक्त
द्वारा जुर्माना लगाया जा सकता है. यदि दी गई सूचना ग़लत है तो अधिकतम
25000 रु. तक का भी जुर्माना लगाया जा सकता है. जुर्माना आपके आवेदन को
ग़लत कारणों से नकारने या ग़लत सूचना देने पर भी लगाया जा सकता है. यह
जुर्माना उस अधिकारी के  निजी वेतन से काटा जाता है.
सवाल  :  क्या पीआईओ पर लगे जुर्माने की राशि आवेदक को दी जाती है?
जवाब  :   नहीं, जुर्माने की राशि सरकारी खजाने में जमा हो जाती है.
हालांकि अनुच्छेद 19 के तहत, आवेदक मुआवज़ा मांग सकता है.

आरटीआई के इस्तेमाल में समझदारी दिखाएं
कई बार आरटीआई के इस्तेमाल के बाद आवेदक को परेशान किया किया जाता है  या
झूठे मुक़दमे में फंसाकर उनका मानसिक और आर्थिक शोषण किया किया जाता है .
यह एक गंभीर मामला है और आरटीआई क़ानून के अस्तित्व में आने के तुरंत बाद
से ही इस तरह की घटनाएं सामने आती रही हैं. आवेदकों को धमकियां दी गईं,
जेल भेजा गया. यहां तक कि कई आरटीआई कार्यकर्ताओं पर कातिलाना हमले भी
हुए. झारखंड के ललित मेहता, पुणे के सतीश शेट्टी जैसे समर्पित आरटीआई
कार्यकर्ताओं की हत्या तक कर दी गई.
इन सब बातों से घबराने की ज़रूरत नहीं है. हमें इस क़ानून का इस्तेमाल इस
तरह करना होगा कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. मतलब अति उत्साह के
बजाय थोड़ी समझदारी दिखानी होगी. ख़ासकर ऐसे मामलों में जो जनहित से जुड़े
हों और जिस सूचना के सार्वजनिक होने से ताक़तवर लोगों का पर्दाफाश होना तय
हो, क्योंकि सफेदपोश ताक़तवर लोग ख़ुद को सुरक्षित बनाए रखने के लिए कुछ भी
कर सकते हैं. वे साम, दाम, दंड और भेद कोई भी नीति अपना सकते हैं. यहीं
पर एक आरटीआई आवेदक को ज़्यादा सतर्कता और समझदारी दिखाने की आवश्यकता है.
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आपको एक ऐसे मामले की जानकारी है, जिसका
सार्वजनिक होना ज़रूरी है, लेकिन इससे आपकी जान को ख़तरा हो सकता है. ऐसी
स्थिति में आप क्या करेंगे? हमारी समझ और सलाह के मुताबिक़, आपको ख़ुद
आरटीआई आवेदन देने के बजाय किसी और से आवेदन दिलवाना चाहिए. ख़ासकर उस
ज़िले से बाहर के किसी व्यक्ति की ओर से. आप यह कोशिश भी कर सकते हैं कि
अगर आपके कोई मित्र राज्य से बाहर रहते हों तो आप उनसे भी उस मामले पर
आरटीआई आवेदन डलवा सकते हैं. इससे होगा यह कि जो लोग आपको धमका सकते हैं,
वे एक साथ कई लोगों या अन्य राज्य में रहने वाले आवेदक को नहीं धमका
पाएंगे. आप चाहें तो यह भी कर सकते हैं कि एक मामले में सैकड़ों लोगों से
आवेदन डलवा दें. इससे दबाव काफी बढ़ जाएगा. यदि आपका स्वयं का कोई मामला
हो तो भी कोशिश करें कि एक से ज़्यादा लोग आपके मामले में आरटीआई आवेदन
डालें. साथ ही आप अपने क्षेत्र में काम कर रही किसी ग़ैर सरकारी संस्था की
भी मदद ले सकते हैं.
 सवाल - जवाब
 क्या फाइल नोटिंग का सार्वजनिक होना अधिकारियों को ईमानदार सलाह देने से
रोकेगा?
नहीं, यह आशंका ग़लत है. इसके  उलट, हर अधिकारी को अब यह पता होगा कि जो
कुछ भी वह लिखता है वह जन- समीक्षा का विषय हो सकता है. यह उस पर उत्तम
जनहित में लिखने का दबाव बनाएगा. कुछ ईमानदार नौकरशाहों ने अलग से
स्वीकार किया है कि आरटीआई उनके राजनीतिक व अन्य प्रभावों को दरकिनार
करने में बहुत प्रभावी रहा है. अब अधिकारी सीधे तौर स्वीकार करते हैं कि
यदि उन्होंने कुछ ग़लत किया तो उनका पर्दाफाश हो जाएगा. इसलिए, अधिकारियों
ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया है कि वरिष्ठ अधिकारी भी उन्हें
लिखित में निर्देश दें.

क्या बहुत लंबी-चौड़ी सूचना मांगने वाले आवेदन को ख़ारिज किया जाना चाहिए?
यदि कोई आवेदक ऐसी जानकारी चाहता है जो एक लाख पृष्ठों की हो तो वह ऐसा
तभी करेगा जब सचमुच उसे इसकी ज़रूरत होगी क्योंकि उसके  लिए दो लाख रुपयों
का भुगतान करना होगा. यह अपने आप में ही हतोत्साहित करने वाला उपाय है.
यदि अर्ज़ी इस आधार पर रद्द कर दी गयी, तो प्रार्थी इसे तोड़कर प्रत्येक
अर्ज़ी में 100 पृष्ठ मांगते हुए 1000 अर्जियां बना लेगा, जिससे किसी का
भी लाभ नहीं होगा. इसलिए, इस कारण अर्जियां रद्द नहीं होनी चाहिए कि लोग
ऐसे मुद्दों से जुड़ी सूचना मांग रहे हैं जो सीधे सीधे उनसे जुड़ी हुई नहीं
हैं. उन्हें सरकार के अन्य मामलों के बारे में प्रश्न पूछने की छूट नहीं
दी जानी चाहिए, पूर्णतः ग़लत है. आरटीआई अधिनियम का अनुच्छेद 6(2)
स्पष्टतः कहता है कि प्रार्थी से यह नहीं पूछा जा सकता कि क्यों वह कोई
जानकारी मांग रहा है. किसी भी मामले में, आरटीआई इस तथ्य से उद्धृत होता
है कि लोग टैक्स/कर देते हैं, यह उनका पैसा है और इसीलिए उन्हें यह जानने
का अधिकार है कि उनका पैसा कैसे ख़र्च हो रहा है और कैसे उनकी सरकार चल
रही है. इसलिए लोगों को सरकार के प्रत्येक कार्य की प्रत्येक बात जानने
का अधिकार है. भले ही वे उस मामले से सीधे तौर पर जुड़े हों या न हों.
इसलिए, दिल्ली में रहने वाला व्यक्ति ऐसी कोई भी सूचना मांग सकता है जो
तमिलनाडु से संबंधित हो.

सरकारी रेकॉर्ड्स सही रूप में व्यवस्थित नहीं हैं.
आरटीआई की वजह से सरकारी व्यवस्था पर अब रेकॉर्ड्स सही आकार और स्वरूप
में रखने का दवाब बनेगा. अन्यथा, अधिकारी को आरटीआई क़ानून के तहत दंड
भुगतना होगा.


प्रथम अपील कब और कैसे करें
आरटीआई की दूसरी अपील कब करें
ऑनलाइन करें अपील या शिकायत
कब करें आयोग में शिकायत
जब मिले ग़लत, भ्रामक या अधूरी सूचना
 समस्या, सुझाव और समाधान
आरटीआई और संसदीय विशेषाधिकार का पेंच
कब होगी न्यायालय की अवमानना
सूचना के बदले कितना शुल्क
डरें नहीं, आरटीआई का इस्तेमाल करें
 नेशनल आरटीआई अवार्डः सूचना के सिपाहियों का सम्मान
दिल्ली की एक संस्था पीसीआरएफ ने 2009 में एक अवार्ड की शुरुआत की. मक़सद
था उन लोगों की हौसला अफजाई और सम्मान, जिन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगाकर
भ्रष्टाचार के ख़िला़फ हल्ला बोला, जिन्होंने सूचना क़ानून का इस्तेमाल
करके सरकारी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया. सच और
ईमानदारी से काम करने वाले कई आरटीआई कार्यकर्ता को इसकी क़ीमत अपनी जान
गंवाकर चुकानी पड़ी.उन सभी देश भक्त लोगो को हम सब का सलाम !!!!!
यह सच है कि आरटीआई के अंतर्गत आने वाले आवेदनों की संख्या बहुत बढ़ी है
लेकिन अभी भी में इसमें बहुत ज़्यादा इजा़फे की गुंजाइश है. लोगों के बीच
आरटीआई के तहत मिलने वाली शक्तियों के बारे में और जागरूकता फैलाने की
ज़रूरत है..................

Saturday, February 5, 2011

बदलियां


आस्मां में घुम घुमा कर आ गई हैं बदलियां
जल-तरंगों को बजाती छा गई हैं बदलियां
नाज़ और अन्दाज़ इनके झूमने के क्या कहें
कभी इतराई कभी बल खा गई हैं बदलियां
पेड़ों पे पिंगें चढ़ी हैं प्यार की मनुहार की
हर किशोरी के हृदय को भा गई हैं बदलियां
साथ उठी थी सभी मिलकर हवा के संग संग
राम जाने किस तरह टकरा गई हैं बदलियां
इक नज़ारा है नदी का जिस तरफ़ ही देखिए
पानियों को किस तरह बरसा रही हैं बदलियां
भीगते हैं बारिशों के पानियों में झूम कर
बाल-गोपालों को यूं हर्षा गई हैं बदलियां
उठ रही हैं हर तरफ़ से सौंधी सौंधी ख़ुशबुएं
बस्तियां जंगल सभी महका गई हैं बदलियां
याद आएगा बरसना  इनका देर तक
गीत रिमझिम के रसीले गा गई हैं बदलियां

ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.


1मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
तुम एम. ऐ. फर्स्ट डिविजन हो, मैं हुआ मैट्रिक फेल प्रिये,
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये. 
तुम फौजी अफसर की बेटी मैं तो किसान का बेटा हूँ.
तुम रबड़ी खीर मलाई हो, मैं सत्तू सपरेटा हूँ.
तुम ऐ.सी. घर में रहती हो मैं पेड़ के नीचे लेता हूँ.
तुम नयी मारुती लगती हो मैं स्कूटर लम्ब्रेटा हूँ.
इस कदर अगर हम छुप-छुप कर आपस में प्रेम बढायेंगे,
तो एक रोज़ तेरे डैडी अमरीश पूरी बन जायेंगे.
सब हड्डी पसली तोड़ मुझे भिजवा देंगे वो जेल प्रिये.
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
 4
3तुम अरब देश की घोडी हो, मैं हूँ गदहे की नाल प्रिये.
तुम दिवाली का बोनस हो, मैं भूखों की हड़ताल प्रिये.
तुम हीरे जडी तश्तरी हो, मैं अल्मुनिअम का थाल प्रिये.
तुम चिकेन सूप बिरयानी हो मैं कंकड़ वाली दाल प्रिये.
तुम हिरन, चौकडी भारती हो, मैं कछुवे की चाल प्रिये.
तुम चन्दन की लकडी हो, मैं हूँ बबूल की छाल प्रिये.
मैं पके आम सा लटका हूँ, मत मार मुझे गुलेल प्रिये.
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
मैं शनि देव जैसा कुरूप, तुम कोमल कंचन काया हूँ.
मैं तन से मन से कांशीराम, तुम महा चंचल माया हो.
तुम निर्मल पावन गंगा हो, मैं जलता हुआ पतंगा हूँ.
तुम राजघाट का शांति मार्च, मैं सांप्रदायिक दंगा हूँ.
तुम हो पूनम का ताजमहल, मैं काली गुफा अजंता की.
तुम हो वरदान विधाता का, मैं गलती हूँ भगवंता की.
तुम जेट विमान की शोभा हो, मैं बस की ठेलम ठेल प्रिये.
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ.
तुम ऐ.के ४७ जैसी, मैं तो एक देसी कट्टा हूँ.
तुम चतुर राबडी देवी सी, मैं भोला भला लालू हूँ.
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिडियाघर का भालू हूँ.
तुम व्यस्त सोनिया गाँधी सी, मैं वी पी सिंह सा खाली हूँ.
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं पुलिसमैन की गाली हूँ.
कल जेल अगर हो जाये तो, दिलवा देना तुम बेल प्रिये.
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
5
2मैं ढाबे के ढांचे जैसा, तुम पॉँच सितारा होटल हो.
मैं महुए का देसी ठर्रा, तुम रेड लेबल की बोतल हो.
तुम चित्रहार का मधुर गीत, मैं कृषि दर्शन की झाड़ी हूँ.
तुम विश्व-सुंदरी सी कमाल मैं तौलिया छाप कबाडी हूँ.
तुम सोनी का मोबाइल हो, मैं टेलीफोन वाला हूँ चोंगा.
तुम मछली मानसरोवर की, मैं सागर तट का घोंगा.
दस मंज़िल से गिर जाऊंगा, मत आगे धकेल प्रिये.
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
तुम सत्ता की महारानी हो, मैं विपक्ष की लाचारी हूँ.
तुम हो ममता-जयललिता सी, मैं कंवारा अटल बिहारी हूँ.
तुम तेंदुलकर का शतक प्रिये, मैं फोलो ऑन की पारी हूँ.
तुम गेट्ज, मतिज़, कोरोला हो, मैं लेलैंड की लौरी हूँ.
मुझको रेफरी ही रहने दो, मत खेलो मुझसे खेल प्रिये.
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये.
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"मैं अँधा हूँ, कृपया मेरी सहायता कीजिये."


एक अँधा लड़का सड़क के किनारे बैठा था. उसके पैरों के पास ही एक तख्ती रखी थी. जिस पर लिखा था, "मैं अँधा हूँ, कृपया मेरी सहायता कीजिये." और पास ही उसकी टोपी रखी थी जिसमे बहुत थोड़े से सिक्के पड़े थे.
1
एक आदमी वहां से गुजरा. उसने लड़के के टोपी में थोड़े से सिक्के देखे. उसकी नज़र तख्ती पर पड़ी. उसने अपने जेब से कुछ सिक्के निकाले और उसकी टोपी में डाल दिए. उसने तख्ती उठाई और उसमे लिखे वाक्य को मिटा कर उस तख्ती पर कुछ और लिखा वापस तख्ती को उसकी जगह पर रखा और अपने रास्ते चला गया.
2
थोडी देर बाद उस अंधे लड़के ने महसूस किया की उसकी टोपी सिक्को से भर गयी है. पहले की अपेक्षा ज्यादा लोगों ने उसकी टोपी में पैसे डाले.

दोपहर में वही आदमी जिसने सुबह तख्ती पर लिखे वाक्य को बदला था, ये देखने वापस आया की उसके लिखे वाक्य का क्या असर हुआ. अंधे लड़के ने उसके क़दमों की आहट पहचान ली, "आप वही है ना जिसने सुबह मेरी तख्ती पर शायद कुछ लिखा था." उसने पूछा, "क्या लिखा था आपने ?"

उस आदमी ने कहा, "मैंने भी वही सच लिखा, जो तुमने लिखा था. लेकिन एक दुसरे तरीके से."

उसने लिखा था, "आज कितना खूबसूरत दिन है, पर मैं इसे देख नहीं सकता."
3
आप क्या समझते है, पहले लिखा वाक्य और दूसरा दोनों ही एक ही बात कह रहे थे ?

निःसंदेह, दोनों ही वाक्य का अर्थ एक ही था पर पहला वाक्य ये कह रहा था की वो लड़का अँधा है और दूसरा वाक्य ये कह रहा था की उसकी अपेक्षा दुसरे लोग कितने भाग्यशाली है जो इस खूबसूरत दुनिया को देख सकते है. और यही वजह थी की दूसरा वाक्य ज्यादा प्रभावकारी साबित हुआ.

आप मेरा हाथ नहीं छोडें



Father and child holding hands uid 1188124
एक बार एक पिता और उसकी छोटी सी बच्ची नदी पर बने हुए संकरे पुल को पार कर रहे थे. चूँकि पुल बहुत ही संकरा और लम्बा था, पिता अपनी बच्ची के लिए थोडा चिंतित हुआ. उसने अपनी बच्ची से कहा "बेटा ये पुल काफी लम्बा और संकरा है. ऐसा करो तुम मेरा हाथ पकड़ लो ताकि तुम्हे चलने कोई परेशानी ना आये और तुम्हे डर भी ना लगे."
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बच्ची ने कहा "मैं नहीं, आप मेरा हाथ पकड़ लीजिये."

"इसमें फर्क क्या है ?" पिता ने आश्चर्य से पूछा.
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"इसमें बहुत बड़ा फर्क है." छोटी बच्ची ने जवाब दिया. "अगर मैं आपका हाथ पकड़ती हूँ तो शायद ऐसा हो सकता है कि किसी वजह से मुझसे आपका हाथ छूट जाए, पर अगर आप मेरा हाथ पकड़ते हैं तो मुझे पूरा यकीन है कि चाहे कुछ भी हो जाए, कैसी भी मुसीबत आ जाए, आप मेरा हाथ नहीं छोडेंगे.

5आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप उसके पास जाते है और कहते है "मैं बहुत अमीर हूँ, मुझसे शादी करोगी?"
That's Direct Marketing.
4

आप एक पार्टी में अपने दोस्तों के साथ खड़े है, एक खूबसूरत लड़की वहां से निकलती है. आपका एक दोस्त उसके पास जाता है और आपकी तरफ इंगित करके कहता है "वो बहुत अमीर है, उससे शादी करोगी?"

That's Advertising.
2
आप एक पार्टी में एक खूबसूरत लड़की को देखते है. कहीं से आपको उसका फ़ोन नंबर मिलता है. अगले दिन आप उसे फ़ोन करते है और कहते है "नमस्कार, मैं बहुत अमीर हूँ. मुझसे शादी करोगी"?
That's Telemarketing.
9
आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप पहले अपनी टाई की गाँठ ठीक करते है. फिर उसके पास जाकर उसे ड्रिंक पेश करते है. जब वो जाने लगे तो उसके लिए कार का दरवाजा खोलते है और कहते है "आप मुझसे शादी करेंगी?"
That's Public Relations.
6
आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप उसके पास जाते है और कहते है "आप बहुत अमीर है. आप मुझसे शादी करेंगी?"
That's Brand Recognition.
8
आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप उसके पास जाते है और कहते है "मैं बहुत अमीर हूँ, क्या आप मुझसे शादी करेंगी?" ये सुन कर वो आप चेहरे पर एक तमाचा जड़ देती है.
That's Customer Feedback.
10आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप उसके पास जाते है और कहते है "मैं बहुत अमीर हूँ, क्या आप मुझसे शादी करेंगी?" ये सुन कर वो आपका अपने पति से परिचय कराती है.
That's demand and supply gap.
1
आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप उसके पास जाकर कुछ कहना चाहते है पर इतने देर में ही एक और आदमी उसके पास पहुँचता है और कहता है "मैं बहुत अमीर हूँ, क्या आप मुझसे शादी करेंगी?"
That's competition eating into your market share.
7
आप एक पार्टी में जाते है वहां एक खूबसूरत लड़की को देखते है. आप उसके पास जाकर कुछ कहना ही चाहते है की आपकी नज़र वही कड़ी अपनी पत्नी पर पड़ती है.
That's restriction for entering new markets

Friday, February 4, 2011

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती (कविता)

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।

अक्सर याद बहुत तुम आती हो (कविता)


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यादों में जब तुम आती हो
रुनझुन पायल छनकाती हो
खुशियों का मन गूंजे नगमा
हाथों कंगना खनकाती हो

याद जो आये घड़ी मिलन की
मेहंदी रंग सजाती हो
आहिस्ता आगोश में भरकर
चुनरी में शरमाती हो

मैं और मेरा चाँद (कविता)

chand 1मैं और मेरा चाँद
अक्सर अँधेरी रातों में
चाय की प्यालियों में डूबकर
जागा करते हैं रात भर

कभी तोड़ते हैं खुशियों का गुल्लक
बाँट लेते हैं खुशियाँ आधी-आधी
और अश्क़ों की बारिश में कभी
भिगो देते हैं गम के तकियों को

एक मुलाकात बेरोजगारी बहन से






राह चलते एक दिन मिल गई हमे बेरोज़गारी बहन
सामने आते ही उनसे मिले हमारे ये दो नयन

नयन मिले तो बात करनी ही पड़ी
हमने पूछा, कैसी हो बड़ी बी?

समय लौट कर नहीं आता




“जैसे नदी बह जाती है और लौटकर नहीं आती, उसी प्रकार रात और दिन मनुष्य की आयु लेकर चले जाते हैं, फिर नहीं आते।”
- महाभारत

मन को मजबूत रखो


मन की दुर्बलता से अधिक भयंकर और कोई पाप नहीं है।
-स्वामी विवेकानंद

हिम्मत कामयाबी के रास्ते की खाद है

कोई भी काम एक दिन में नहीं सफल होता। काम एक पेड़ की तरह होता है। पहले उसकी आत्मा में एक बीज बोया जाता है, हिम्मत की खाद से उसे पोषित किया जाता है और मेहनत के पानी से उसे सींचा जाता है, तब जाकर सालों बाद वह फल देने के लायक होता है।

Wednesday, February 2, 2011

.उदार दृष्टि ...........



पुराने जमाने की बात है। ग्रीस देश के स्पार्टा राज्य में पिडार्टस नाम
का एक नौजवान रहता था। वह पढ़-लिखकर बड़ा विद्वान बन गया था।

एक बार उसे पता चला कि राज्य में तीन सौ जगहें खाली हैं। वह नौकरी की
तलाश में था ही, इसलिए उसने तुरन्त अर्जी भेज दी।

लेकिन जब नतीजा निकला तो मालूम पड़ा कि पिडार्टस को नौकरी के लिए नहीं चुना गया था।

जब उसके मित्रों को इसका पता लगा तो उन्होंने सोचा कि इससे पिडार्टस बहुत
दुखी हो गया होगा, इसलिए वे सब मिलकर उसे आश्वासन देने उसके घर पहुंचे।

पिडार्टस ने मित्रों की बात सुनी और हंसते-हंसते कहने लगा, “मित्रों,
इसमें दुखी होने की क्या बात है? मुझे तो यह जानकर आनन्द हुआ है कि अपने
राज्य में मुझसे अधिक योग्यता वाले तीन सौ मनुष्य हैं।”.....

स्वीटजरलैंड सबसे अमीर कैसे??? ......................

मित्रों शीर्षक पढ़ कर चौंका जा सकता है कि तुम्हे क्या पड़ी है कोई देश
कितना भी अमीर क्यों है? तुम तो अपने देश की चिंता करो न कि तुम्हारा देश
इतना गरीब क्यों है? किन्तु मित्रों मेरा आपसे आग्रह है कि कृपया एक बार
मेरे इस लेख को ध्यान से अवश्य पढ़ें। लेख शायद जरूरत से ज्यादा लम्बा हो
जाये और बीच में शायद आप को ऐसा भी लगे कि मै कहीं लेख के मुख्य शीर्षक
से कहीं भटक गया हूँ किन्तु जो बात आपको कहना चाहता हूँ उसके लिये आपके
कुछ मिनट चाहूँगा।
मित्रों जैसा कि आप सब लोग जानते ही होंगे कि विश्व में इस समय करीब २००
देश हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के पिछले वर्ष के एक सर्वेक्षण के अनुसार
विश्व में ८६ महा दरिद्र देश हैं और उनमे भारत १७वे स्थान पर आता है।
अर्थात ६९ महा दरिद्र देश भारत से ज्यादा अमीर हैं। केवल १६ महा दरिद्र
देश विश्व में ऐसे हैं जो भारत के बाद आते हैं। दुनिया का सबसे अमीर देश
इसके अनुसार स्वीटजरलैंड है। मित्रों अब प्रश्न यहाँ से उठता है कि
स्वीटजरलैंड सबसे अमीर कैसे है? मेरे एक परीचित एवं अग्रज तुल्य देश के
एक वैज्ञानिक श्री राजिव दीक्षित से मिली एक जानकारी के अनुसार
स्वीटजरलैंड में कुछ भी नहीं होता। कुछ भी का मतलब कुछ भी नहीं। वहां
किसी प्रकार का कोई व्यापार नहीं है, कोई खेती नहीं, कोई छोटा मोटा
उद्योग भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि स्वीटजरलैंड दुनिया का सबसे अमीर
देश है?


मित्रों श्री राजीव दीक्षित के एक व्याक्यान में उन्होंने बताया था कि वे
एक बार जर्मनी गए थे और वहां एक प्रोफेसर से उनका विवाद हो गया। विवाद का
विषय था ”भारत महान या जर्मनी?” जब कोई निर्णय नहीं निकला तो उन्होंने एक
रास्ता बनाया कि दोनों जन एक दूसरे से उसके देश के बारे में कुछ सवाल
पूछेंगे और जिसके जवाब में सबसे ज्यादा हाँ का उत्तर होगा वही जीतेगा और
उसी का देश महान। अब राजीव भाई ने प्रश्न पूछना शुरू किया। उनका पहला
प्रश्न था-


प्र-क्या तुम्हारे देश में गन्ना होता है?


उ-नहीं।


प्र-क्या तुम्हारे देश में केला होता है?


उ-नहीं।


प्र-क्या तुम्हारे देश में आम, सेब, लीची या संतरा जैसा कोई फल होता है?


उ-(बौखलाहट के साथ) हमारे देश में तो क्या पूरे यूरोप में मीठे फल नहीं
लगते, आप कुछ और पूछिए।


प्र-क्या तुम्हारे देश में पालक होता है?


उ-नहीं।


प्र-क्या तुम्हारे देश में मूली होती है?


उ-नहीं।


प्र-क्या तुम्हारे देश में पुदीना, धनिया या मैथी जैसी कोई चीज होती है?


उ-(फिर बौखलाहट के साथ) पूरे यूरोप में पत्तेदार सब्जियां नहीं होती, आप
कुछ और पूछिए।


इस पर राजीव भाई ने कहा कि मैंने तो तुम्हारे यहाँ के डिपार्टमेंटल स्टोर
में सब देखा है, ये सब कहाँ से आया? तो इस पर उसने कहा कि ये सब हम भारत
या उसके आस पास के देशों से मंगवाते हैं। तो राजीव भाई ने कहा कि अब आप
ही मुझसे कुछ पूछिए। तो उन्होंने और कूछ नहीं पूछा बस इतना पूछा कि भारत
में क्या ये सब कूछ होता है? तो उन्होंने बताया कि बिलकुल ये सब होता है।
भारत में करीब ३५०० प्रजाति का गन्ना होता है, करीब ५००० प्रजाति के आम
होते हैं। और यदि आप दिल्ली को केंद्र मान कर १०० किमी की त्रिज्या का एक
वृत बनाएं तो इस करीब ३१४०० वर्ग किमी के वृत में आपको आमों की करीब ५००
प्रजातियाँ बाज़ार में बिकती मिल जाएंगी। इन सब सवालों के बाद प्रोफेसर
ने कहा कि इतना सब कूछ होने के बाद भी आप इतने गरीब और हम इतने अमीर
क्यों हैं? ऐसा क्या कारण है कि आज आपकी भारत सरकार हम यूरोपीय या अमरीकी
देशों के सामने कर्ज मांगने खड़ी हो जाती है? प्राकृतिक रूप से इतने अमीर
होने के बाद भी आप भिखारी और हम कर्ज़दार क्यों हैं?


तो मित्रों शंका यही है कि प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी हम
इतने गरीब क्यों हैं? और यूरोप जहाँ प्रकृति की कोई कृपा नहीं है फिर भी
इतना अमीर कैसे?


मित्रों भारत को विश्व में सोने की चिड़िया कहा गया किन्तु एक बात सोचने
वाली है कि यहाँ तो कोई सोने की खाने नहीं हैं फिर यहाँ विश्व का सबसे
बड़ा सोने का भण्डार बना कैसे? यहाँ प्रश्न जरूर पैदा होते हैं किन्तु एक
उत्तर यह मिलता है कि हम हमेशा से गरीब नहीं थे। अब जब भारत में सोना
नहीं होता तो साफ़ है कि भारत में सोना आया विदेशों से। किन्तु हमने तो
कभी किसी देश को नहीं लूटा। इतिहास में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है जिससे
भारत पर ऐसा आरोप लगाया जा सके कि भारत ने अमुक देश को लूटा, भारत ने
अमुक देश को गुलाम बनाया, न ही भारत ने आज कि तरह किसी देश से कोई क़र्ज़
लिया फिर यह सोना आया कहाँ से? तो यहाँ जानकारी लेने पर आपको कूछ ऐसे
सबूत मिलेंगे जिससे पता चलता है कि कालान्तर में भारत का निर्यात विश्व
का ३३% था। अर्थात विश्व भर में होने वाले कुल निर्यात का ३३% निर्यात
भारत से होता था। हम ३५०० वर्षों तक दुनिया में कपडा निर्यात करते रहे
क्यों की भारत में उत्तम कोटी का कपास पैदा होता था। तो दुनिता को सबसे
पहले कपडा पहनाने वाला देश भारत ही रहा है। कपडे के बाद खान पान की अनेक
वस्तुएं भारत दुनिया में निर्यात करता था क्यों कि खेती का सबसे पहले
जन्म भारत में ही हुआ है। खान पान के बाद भारत में करीब ९० अलग अलग
प्रकार के खनीज भारत भूमी से निकलते है जिनमे लोहा, ताम्बा, अभ्रक,
जस्ता, बौक् साईट, एल्यूमीनियम और न जाने क्या क्या होता था। भारत में
सबसे पहले इस्पात बनाया और इतना उत्तम कोटी का बनाया कि उससे बने जहाज
सैकड़ों वर्षों तक पानी पर तैरते रहते किन्तु जंग नहीं खाते थे। क्यों की
भारत में पैदा होने वाला लौह अयस्क इतनी उत्तम कोटी का था कि उससे उत्तम
कोटी का इस्पात बनाया गया। लोहे को गलाने के लिये भट्टी लगानी पड़ती है
और करीब १५०० डिग्री ताप की जरूरत पड़ती है और उस समय केवल लकड़ी ही एक
मात्र माध्यम थी जिसे जलाया जा सके। और लकड़ी अधिकतम ७०० डिग्री ताप दे
सकती है फिर हम १५०० डिग्री तापमान कहा से लाते थे वो भी बिना बिजली के?
तो पता चलता है कि भारत वासी उस समय कूछ विशिष्ट रसायनों का उपयोग करते
थे अर्थात रसायन शास्त्र की खोज भी भारत ने ही की। खनीज के बाद चिकत्सा
के क्षेत्र में भी भारत का ही सिक्का चलता था क्यों कि भारत की औषधियां
पूरी दुनिया खाती थी। और इन सब वस्तुओं के बदले अफ्रीका जैसे स्वर्ण
उत्पादक देश भारत को सोना देते थे। तराजू के एक पलड़े में सोना होता था
और दूसरे में कपडा। इस प्रकार भारत में सोने का भण्डार बना। एक ऐसा देश
जहाँ गाँव गाँव में दैनिक जीवन की लगभग सभी वस्तुएं लोगों को अपने ही आस
पास मिल जाती थी केवल एक नमक के लिये उन्हें भारत के बंदरगाहों की तरफ
जाना पड़ता था क्यों कि नमक केवल समुद्र से ही पैदा होता है। तो विश्व का
एक इ तना स्वावलंबी देश भारत रहा है और हज़ारों वर्षों से रहा है और आज
भी भारत की प्रकृती इतनी ही दयालु है, इतनी ही अमीर है और अब तो भारत में
राजस्थान में बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर में पेट्रोलियम भी मिल गया है तो
आज भारत गरीब क्यों है और प्रकृति की कोई दया नहीं होने के बाद यूरोप
इतना अमीर क्यों?


तो मित्रो इसका उत्तर यहाँ से मिलता है। उस समय अफ्रीका और लैटिन अमरीका
तक व्यापार का काम दो देशों चीन और भारत से होता था। आप सब जानते ही
होंगे कि अफ्रीका दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण उत्पादक क्षेत्र रहा है और
आज भी है। इसके अलावा अफ्रीका की चिकित्सा पद्धति भी अद्भुत रही है। सबसे
ज्यादा स्वर्ण उत्पादन के कारण अफ्रीका भी एक बहुत अमीर देश रहा है।
अंग्रेजों द्वारा दी गयी ४५० साल की गुलामी भी इस देश से वह गुण नहीं छीन
पायी जो गुण प्रकृति ने अफ्रीका को दिया। अंग्रेजों ने अफ्रीका को न केवल
लूटा बल्कि बर्बरता से उसका दोहन किया। भारत और अफ्रीका का करीब ३००० साल
से व्यापारिक सम्बन्ध रहा है। भौगोलिक दृष्टि से समुद्र के रास्ते दक्षिण
एशिया से अफ्रीका या लैटिन अमरीका जाने के लिये इंग्लैण्ड के पास से
निकलना पड़ता था। तब इंग्लैण्ड वासियों की नज़र इन जहाज़ों पर पड़ गयी।
और आप जानते होंगे कि इंग्लैण्ड में कूछ नही था, लोगों का काम लूटना और
मार के खाना ही था, ऐसे में जब इन्होने देखा कि माल और सोने भरे जहाज़
भारत जा रहे हैं तो इन्होने जहाज़ों को लूटना शुरू किया। किन्तु अब
उन्होंने सोचा कि क्यों न भारत जा कर उसे लूटा जाए।।। तब कूछ लोगों ने
मिल कर एक संगठन खड़ा किया और वे इंग्लैण्ड के राजा रानी से मिले और उनसे
कहा कि हम भारत में व्यापार करना चाहते हैं हमें लाइसेंस की आवश् यकता
है। अब राज परिवार ने कहा कि भारत से कमाया गया धन राज परिवार,
मंत्रिमंडल, संसद और अधीकारियों में भी बंटेगा। इस समझौते के साथ सन १७५०
में थॉमस रो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से जहांगीर के दरबार में पहुंचा
और व्यापार करने की आज्ञा मांगी। और तब से १९४७ तक क्या हुआ है वह तो आप
भी जानते है।


थॉमस रो ने सबसे पहले सूरत के एक महल नुमा घर को लूटा जो आज भी मौजूद है।
फिर पड़ोस के गाँव में और फिर और आगे। खाली हाथ आये इन अंग्रजों के पास
जब करोड़ों की संपत्ति आई तो इन्होने अपनी खुद की सेना बनायी। उसके बाद
सन १७५७ में रोबर्ट क्लाइव बंगाल के रास्ते भारत आया उस समय बंगाल का
राजा सिराजुद्योला था। उसने अंग्रेजों से संधि करने से मना कर दिया तो
रोबर्ट क्लाइव ने युद्ध की धमकी दी और केवल ३५० अंग्रेज सैनिकों के साथ
युद्ध के लिये गया। बदले में सिराजुद्योला ने १८००० की सेना भेजी और
सेनापति बनाया मीर जाफर को। तब रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को पत्र भेज कर
उसे बंगाल की राज गद्दी का लालच देकर उससे संधि कर ली। रोबर्ट क्लाइव ने
अपनी डायरी में लिखा था कि बंगाल की राजधानी जाते हुए मै और मीर जाफर
सबसे आगे, हमारे पीछे मेरी ३५० की अंग्रेज सेना और उनके पीछे बंगाल की
१८००० की सेना। और रास्‍ते में जितने भी भारतीय हमें मिले उन्होंने हमारा
कोई विरोध नहीं किया, उस समय यदि सभी भारतीयों ने मिल कर हमारा विरोध
किया होता या हम पर पत्थर फैंके होते तो शायद हम कभी भारत में अपना
साम्राज्य नहीं बना पाते। वो डायरी आज भी इंग्लैण्ड में है। मीर जाफर को
राजा बनवाने के बाद धोखे से उसे मार कर मीर कासिम को राजा बनाया और फिर
उसे मरवाकर खुद बंगाल का राजा बना। ६ साल लूटने के बाद उसका स्थानातरण
इंग्लैण्ड हुआ और वहां जा कर जब उससे पूछा गया कि कितना माल लाये हो तो
उसने कहा कि मै सोने के सिक्के, चांदी के सिक्के और बेश कीमती हीरे
जवाहरात लाया हूँ। मैंने उन्हें गिना तो नहीं किन्तु इन्हें भारत से
इंग्लैण्ड लाने के लिये मुझे ९०० पानी के जहाज़ किराये पर लेने पड़े। अब
सोचो एक अकेला रोबर्ट क्लाइव ने इतना लूटा तो भारत में उसके जैसे ८४
ब्रीटिश अधीकारी आये जिन्होंने भारत को लूटा। रोबर्ट क्लाइव के बाद वॉरेन
हेस्टिंग्स नामक अंग्रेज अधीकारी आया उसने भी लूटा, उसके बाद विलियम पिट,
उसके बाद कर्जन, लौरेंस, विलियम मेल्टिन और न जाने कौन कौन से लुटेरों ने
लूटा। और इन सभी ने अपने अपने वाक्यों में भारत की जो व्याख्या की उनमे
एक बात सबमे सामान है। सबने अपने अपने शब्दों में कहा कि भारत सोने की
चिड़िया नहीं सोने का महासागर है। इनका लूटने का प्रारम्भिक तरीका यह था
कि ये किसी धनवान व्यक्ति को एक चिट्ठी भेजते थे जिसमे एक करोड़, दो
करोड़ या पांच करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की मांग करते थे और न देने पर घर
में घुस कर लूटने की धमकी देते थे। ऐसे में एक भारतीय सोचता कि अभी नहीं
दिया तो घर से दस गुना लूट के ले जाएगा अत: वे उनकी मांग पूरी करते गए।
धनवानों के बाद बारी आई देश के अन्य राज्यों के राजाओं की। वे अन्य राज
परीवारों को भी ऐसे ही पत्र भेजते थे। कूछ राज परिवार जो कायर थे उनकी
मांग मान लेते थे किन्तु कूछ साहसी लोग ऐसे भी थे जो उन्हें युद्ध के
लिये ललकारते थे। फिर अंग्रेजों ने राजाओं से संधि करना शुरू कर दिया।


अंग्रेजों ने भारत के एक भी राज्य पर शासन खुद युद्ध जीत कर नहीं जमाया।
महारानी झांसी के विरुद्ध १७ युद्ध लड़ने के बाद भी उन्हें हार का मूंह
देखना पड़ा। हैदर अली से ५ युद्धों में अंग्रेजों ने हार ही देखी। किन्तु
अपने ही देश के कूछ कायरों ने लालच में आकर अंग्रेजों का साथ दिया और
अपने बंधुओं पर शस्त्र उठाया।


सन १८३४ में अंग्रेज अधिकारी मैकॉले का भारत में आगमन हुआ। उसने अपनी
डायरी में लिखा है कि ”भारत भ्रमण करते हुए मैंने भारत में एक भी भिखारी
और एक भी चोर नहीं देखा। क्यों कि भारत के लोग आज भी इतने अमीर हैं कि
उन्हें भीख मांगने और चोरी करने की जरूरत नहीं है और ये भारत वासी आज भी
अपना घर खुला छोड़ कर कहीं भी चले जाते हैं इन्हें तालों की भी जरूरत
नहीं है।” तब उसने इंग्लैण्ड जा कर कहा कि भार त को तो हम लूट ही रहे हैं
किन्तु अब हमें कानूनन भारत को लूटने की नीति बनानी होगी और फिर मैकॉले
के सुझाव पर भारत में टैक्स सिस्टम अंग्रेजों द्वारा लगाया गया। सबसे
पहले उत्पादन पर ३५०%, फिर उसे बेचने पर ९०% । और जब और कूछ नहीं बचा तो
मुनाफे पर भी टैक्स लगाया गया। इस प्रकार अंग्रजों ने भारत पर २३ प्रकार
के टैक्स लगाए।


और इसी लूट मार से परेशान भारतीयों ने पहली बार एकत्र होकर सब १८५७ में
अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति छेड़ दी। इस क्रांती की शुरुआत करने वाले
सबसे पहले वीर मंगल पाण्डे थे और अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के
लिये शहीद होने वाले सबसे पहले शहीद भी मंगल पांडे ही थे। देखते ही देखते
इस क्रान्ति ने एक विशाल रूप धारण किया। और इस समय भारत में करीब ३ लाख
२५ हज़ार अंग्रेज़ थे जिनमे से ९०% इस क्रांति में मारे गए। किन्तु इस
बार भी कूछ कायरों ने ही इस क्रान्ति को विफल किया और अंग्रेजों द्वारा
सहायता मांगने पर उन्होंने फिर से अपने बंधुओं पर प्रहार किया।


उसके बाद १८७० में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति छेड़ी हमारे देश के
गौरव स्वामी दयानंद सरस्वती ने, उनके बाद लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय,
वीर सावरकर जैसे वीरों ने। फिर गांधी जी, भगत सिंह, उधम सिंह, चंद्रशेखर
जैसे बीरों ने। अंतिम लड़ाई लड़ने वालों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस रहे
हैं। सन १९३९ में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब हिटलर इंग्लैण्ड को
मारने के लिये तैयार खड़ा था तो अंग्रेज साकार ने भारत से एक हज़ार ७३२
करोड़ रुपये ले जा कर युद्ध लड़ने का निश्चय किया और भारत वासियों को वचन
दिया कि युद्ध के बाद भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा और यह राशि भारत को
लौटा दी जाएगी। किन्तु अंग्रेज अपने वचन से मुकर गए।


आज़ादी मिलने से कूछ समय पहले एक बीबीसी पत्रकार ने गांधी जी से पूछा कि
अब तो अंग्रेज जाने वाले हैं, आज़ादी आने वाली है, अब आप पहला काम क्या
करेंगे? तो गांधी जी ने कहा कि केवल अंग्रेजों के जाने से आज़ादी नहीं
आएगी, आज़ादी तो तब आएगी जब अंग्रेजो द्वारा बनाया गया पूरा सिस्टम हम
बदल देंगे अर्थात उनके द्वारा बनाया गया एक एक कानून बदलने की आवश्यकता
है क्यों कि ये क़ानून अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये बनाए थे,
किन्तु अब भारत के आज़ाद होने के बाद इन सभी व्यर्थ के कानूनों को हटाना
होगा और एक नया संविधान भारत के लिये बनाना होगा। हमें हमारी शिक्षा
पद्धति को बदलना होगा जो कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाए रखने के
लिये बनाई थी। जिसमे हमें हमारा इतिहास भुला कर अंग्रेजों का कथित महान
इतिहास पढ़ाया जा रहा है। अंग्रेजों कि शिक्षा पद्धति में अंग्रजों को
महान और भारत को नीचा और गरीब देश बता कर भारत वासियों को हीन भावना से
ग्रसित किया जा रहा है। इस सब को बदलना होगा तभी सही अर्थों में आजादी
आएगी।


किन्तु आज भी अंग्रेजों के बनाए सभी क़ानून यथावत चल रहे हैं अंग्रेजों
की चिकित्सा पद्धति यथावत चल रही है। और कूछ काम तो हमारे देश के नेताओं
ने अंग्रेजों से भी बढ़कर किये। अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये २३
प्रकार के टैक्स लगाए किन्तु इन काले अंग्रेजों ने ६४ प्रकार के टैक्स हम
भारत वासियों पर थोप दिए। और इसी टैक्स को बचाने के लिये देश के लोगों ने
टैक्स की चोरी शुरू की जिससे काला बाजारी जैसी समस्या सामने आई।
मंत्रियों ने इतने घोटाले किये कि देश की जनता भूखी मरने लगी। भारत की
आज़ादी के बाद जब पहली बार संसद बैठी और चर्चा चल रही थी राष्ट्र निर्माण
की तो कई सांसदों ने नेहरु से कहा कि वह इंग्लैण्ड से वह उधार की राशी
मांगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत से उधार के तौर
पर ली थी और उसे राष्ट्र निर्माण में लगाए। किन्तु नेहरु ने कहा कि अब वह
राशि भूल जाओ। तब सांसदों का कहना था कि इन्होने जो २०० साल तक हम पर जो
अत्याचार किया है क्या उसे भी भूल जाना चाहिए? तब नेहरु ने कहा कि हाँ
भूलना पड़ेगा, क्यों कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सब कूछ भुलाना पड़ता
है। और तब यही से शुरुआत हुई सता की लड़ाई की और राष्ट्र निर्माण तो बहुत
पीछे छूट गया था।


तो मित्रों अब मुझे समझ आया कि भारत इतना गरीब कैसे हुआ, किन्तु एक
प्रश्न अभी भी सामने है कि स्वीटजरलैंड जैसा देश आज इतना अमीर कैसे है जो
आज भी किसी भी प्रकार का कार्य न करने पर भी मज़े कर रहा है। तो मित्रों
यहाँ आप जानते होंगे कि स्वीटजरलैंड में स्विस बैंक नामक संस्था है, केवल
यही एक काम है जो स्वीटजरलैंड को सबसे अमीर देश बनाए बैठा है। स्विस बैंक
एक ऐसा बैंक है जो किसी भी व्यक्ति का कित ना भी पैसा कभी भी किसी भी समय
जमा कर लेता है। रात के दो बजे भी यहाँ काम चलता मिलेगा। आपसे पूछा भी
नहीं जाएगा कि यह पैसा आपके पास कहाँ से आया? और उसपर आपको एक रुपये का
भी ब्याज नहीं मिलेगा। और ये बैंक आपसे पैसा लेकर भारी ब्याज पर लोगों को
क़र्ज़ देता है। खाताधारी यदि अपना पैसा निकालने से पहले यदि मर जाए तो
उस पैसा का मालिक स्विस बैंक होगा, क्यों कि यहाँ उत्तराधिकार जैसी कोई
परम्परा नहीं है। और स्वीटजरलैंड अकेला नहीं है, ऐसे ७० देश और हैं जहाँ
काला धन जमा होता है इनमे पनामा और टोबैको जैसे देश हैं।


मित्रों आज़ादी के बाद भारत में भ्रष्टाचार तो इतना बढ़ा कि मधु कौड़ा
जैसे मुख्यमंत्री ने झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर केवल दो साल में ५६००
करोड़ की संपत्ति स्विस बैंक में जमा करवा दी। जब मधु कौड़ा जैसा
मुख्यमंत्री केवल दो साल में ५६०० करोड़ रुपये भारत के एक गरीब राज्य से
लूट सकता है तो ६३ सालों से सत्ता में बैठे काले अंग्रेजों ने इस अमीर
देश से कितना लूटा होगा? ऐसे ही थोड़े ही राजीव गांधी ने कहा था कि जब मै
एक रूपया देश की जनता को देता हूँ तो जनता तक केवल १५ पैसे पहुँचते हैं।
कूछ समय पहले उत्तर प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी अखंड प्रताप सिंह के घर
जब इन्कम टैक्स का छापा पड़ा तो उनके घर से ४८० करोड़ रुपये मिले। पूछताछ
में अखंड प्रताप सिंह ने बताया कि ऐसे मेरे १९ घर और हैं। और इस प्रकार
से ये पैसा पहुंचता है स्विस बैंक।


तो मित्रों अब यहाँ से पता चलता है कि भारत आज़ादी के ६३ साल बाद भी इतना
गरीब देश क्यों है और स्वीटजरलैंड इतना अमीर क्यों है? इसका उत्तर यह है
कि १५ अगस्त १९४७ को भारत आज़ाद नहीं हुआ था केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ
था। सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथ से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथ में आ
गयी थी।


और आज इन्ही काले अंग्रेजों की संताने आज हम पर शाशन कर रही हैं। वरना
क्या वजह है कि मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में नयी दुनिया नामक एक अखबार
की पुस्तक का विमोचन करने पहुंचे चिताम्बरम ने यह कहा कि भारत तो हज़ारों
वर्षों से भयंकर गरीब देश है। और इन्ही काले अंग्रेजों की एक और संतान
हमारे प्रधान मंत्री जी हैं। जब ये प्रधान मंत्री बनने के बाद पहली बार
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गए तो वहां उन्हà   ंने कहा कि भारत तो सदियों
से गरीब देश रहा है, ये तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने आकर हमें
अँधेरे से बाहर निकाला, हमारे देश में ज्ञान का सूरज लेकर आये, हमारे देश
का विकास किया आदि आदि। अगले दिन लन्दन के सभी बड़े बड़े अखबारों में
हैडलाइन छपी थी की भारत शायद आज भी मानसिक रूप से हमारा गुलाम है। और ये
वही काले अंग्रेज हैं जो खुद तो देश का पैसा स्विस बैंक में जमा करते गए
किन्तु गुजरात जैसे प्रदेश में भी विकास करने वाले नरेन्द्र भाई मोदी पर
पता नहीं क्या क्या घटिया आरोप लगाते रहे। मानसिक गुलामी की बाढ़ इतनी
आगे बढी कि हमारा मीडिया भी उसमे गोते खाने लगा। देश पर २०० साल तक राज़
करने वाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक भारतीय उद्योगपति संजीव मेहता ने
१५० लाख डॉलर मूल्य देकर खरीद लिया, जिस कम्पनी ने भारत को २०० साल गुलाम
बनाया वह कम्पनी आज एक भारतीय की गुलाम हो गयी है, किन्तु देश के किसी भी
चैनल पर इसे नहीं देखा गया क्यों कि हमारा टीआरपी पसाद मीडिया तो उस समय
सानिया शोएब की कथित प्रेम कहानी को कवर करने में बिजी था न, उस समय देश
से ज्यादा शायद ये दो प्रेम के पंछी मीडिया के लिये जरूरी थे।


तो मित्रों अब यदि इन काले अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए तो फिर से कोई
स्वतंत्रता संग्राम छेड़ना होगा, कोई क्रान्ति को जन्म देना होगा। फिर से
किसी को मंगल पण्डे बनना होगा, किसी को भगत सिंह तो किसी को सुभाष चन्द्र
बोस बनना होगा। क्यों कि जीवन जीने के केवल दो हे तरीके इस देश में बचे
हैं कि या तो जो हो रहा है उसे सहते रहो, शान्ति के नाम पर यथास्थिति
बनाए रखो, और सब कूछ सहते सहते मर जाओ या फिर खड़े हो जाओ एक संकल्प के
साथ और आवाज़ उठाओ अन्याय के विरुद्ध, फिर से खड़ी करो एक क्रान्ति, और
केवल मै और मेरा पारिवार की विचारधारा से भार आकर मेरा राष्ट्र की
विचारधारा को अपनाओ। किन्तु आज इस देश में यथास्थिति वाले लोग अधिक है।
उन्ही से पूछना चाहूँगा कि क्या ये दिन देखने के लिये ही तुम्हारे
पूर्वजों ने जीवन का बलिदान दिया था, क्या उनका त्याग व्यर्थ जाएगा, क्या
आज तुम्हारे पूर्वजों को तुम प र गर्व होगा, क्या आने वाली पीढी को तुम
पर गर्व होगा, क्या अपनी आने वाली पीढ़ी के लिये विरासत में तुम इन काले
अंग्रेजों को छोड़ के जाओगे? आचार्य विष्णु गुप्त (चाणक्य) ने कहा था कि
जितनी हानि इस राष्ट्र को दुर्जनों कि दुर्जनता से हुई है उससे कहीं अधिक
हानि इस राष्ट्र को सज्जनों कि निष्क्रियता से हुई है। क्या आप सज्जन
हमेशा निष्क्रीय ही बने रहेंगे? अब कोई भी यह पूछ सकता है कि हम क्या
करें? मित्रों करने को बहुत कूछ है करने की इच्छा शक्ति होनी चाहिए। यदि
आप में इच्छा शक्ति है, यदि आप में ज्ञान है तो आप खुद अपने लिये राह बना
सकते हैं। चाणक्य ने मगध सम्राट धननंद के दरबार में उसे ही ललकारते हुए
कहा था कि मेरे ज्ञान में अगर शक्ति है तो मै अपना पोषण कर सकने वाले
सम्राटों का निर्माण स्वयं कर लूँगा।


मित्रों मै जानता हूँ कि ये लेख कूछ अधिक लम्बा हो गया है और इसमें लिखी
गयी सभी बातों को आप भी जानते होंगे, किन्तु फिर भी इन सब बातों को एक
साथ पिरो कर आपके सामने लाना जरूरी था क्यों कि कूछ राष्ट्र विरोधी
शक्तियां चर्चा के समय बहुत से ऊट पटांग सवाल कर सकती हैं, तथ्यों की
मांग उनकी तरफ से होती रहती है, जहाँ तक हो सकता था मैंने बहुत कूछ लिख
देने की कोशिश की है, इस लिये मैंने पूरा इतिहास ही लिख डाला। अब भी यदि
किसी तथ्य की आवश्यकता है तो हम पुराने समय में नहीं जा सकते कि सब कूछ
आप को सीधा प्रसारण दिखा सकें। आशा करता हूँ कि सभी प्रश्नों के उत्तर
आपको मिल जाएंगे और फिर भी कूछ रह जाए तो मै उत्तर देने के लिये प्रस्तुत
हूँ।


धन्यवाद…जय हिंद…